Sunday 13 August 2017

EK AAM KAHANI # 6

Sunday, August 13, 2017 By , , No comments

शाम का समय था। मुंशी जी के बेटे का रिजल्ट आने वाला था। उनके ऑफिस ख़त्म होने में कुछ आधा घंटा ही बचा था। चिंता सुबह से ही उनको खाये जा रही थी, की अगर उनका बेटा, गोपाल, फेल हो गया तो आगे क्या होगा। वजह वाजिब भी थी क्यूंकि उनकी आर्थिक स्तिथि कुछ सही नहीं थी। पत्नी की तबियत ख़राब चल रही थी, उसकी गोली दवाई में आधी तनख्वा चली जाती थी। बचे पैसो से जैसे तैसे घर का खर्च चला रहे थे तथा अपने बेटे की पढाई करवा रहे थे।


चिंता के बादल इतने में ही नहीं थमते थे। इससे बड़ी परेशानी ये थी की अगर उनका बेटे पास भी हो जाता हे और उसको स्कालरशिप नहीं मिलती तो प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाने के पैसे कैसे जमा हो पाएंगे। इन्ही सब चिंता में सारा दिन निकल गया था। सब्र का बाँध भी मानो टूटने की कगार में था।

ये सब के बीच में फैक्ट्री का साईरन बजता है। मुंशी जी अपनी व्यथा और चिंताओं के पिटारे को दिल में दबा के पैदल चल देते हे बस स्टॉप की तरफ। रिजल्ट की चिंता उनके चेहरे पे स्पष्ट नज़र आती है।

बस स्टॉप में बस को देखने के लिए मुंशी जी राइट साइड देखते है। एक बार तो ये भी सोचते हे की पैदल ही निकल चले, परन्तु घुटने के दर्द को याद करते हुए रुक से जाते है। तभी दूर से एक लाल डब्बा उनकी ओर आता नज़र आता है। 'चलो कुछ तो अच्छा हुआ ', ये बोलते हुए लम्बी सास छोड़ते है। उसी वक़्त उनके फ़ोन में घंटी बजती है। फ़ोन पुराना हे और स्क्रीन ने साथ काफी हद्द तक छोड़ चूका हे। हाथ से स्क्रीन पूछते हुए वो उसको उठाते है।

"पापा, में अव्वल नंबर से पास हो गया", दूसरे तरफ से आवाज़ आती है।

वो उस आवाज़ को पहचान जाते है। उनके चेहरे के सारे रंग मानो लौट आये हो। वो ख़ुशी से कूदना चाहते है। अपने बच्चे को दुनिया की सारी ख़ुशी देना चाहते है और इसी उत्साह में वो उससे पूछते हे, "आज क्या खाओगे बेटे?"

घर की परिषतिथि जानते हुए उनका बेटा चुप कर जाता है। "बस आप घर आ जाइए,मुझे और कुछ नहीं चाहिए"

पर मुंशी जी भी बाप है। उनको पता हे की बेटे को जलेबी पसंद है। इसे याद रखते हुए, होठो में हलकी सी मुस्कान लिए कहते है, "ठीक हे, कुछ नहीं लाता"

कॉल कट्टा है और इतने में बस उनके सामने आके खड़ी हो जाती है। महीने का आखरी हफ्ता है और जलेबी लेते हुए जाना है। ये सोचते हुए वो अपनी जेब में हाथ डालके पैसे गिनते है। मात्र १० रूपए मिलते है।

मुंशी जी असमंजस में पद जाते है की बस से ५ km का सफर करे उन पैसो से, या फिर जलेबी अपने बच्चे के लिए लेके जाएँ। एक तरफ उनके घुटने का दर्द भी उनको याद हे परन्तु अपने बच्चे के चेहरे में जलेबी को देख के आने वाली ख़ुशी को वो मिस नहीं करना चाहते।

धीरे धीरे यात्री भी बस में चढ़ने को आ गए है। आखरी बंदा चढ़ता है, वो पीछे मुद के मुंशी जी को देखता हे की वो चढ़ जाएँ।

तभी, तभी मुंशी जी कुछ ऐसा कर जाते हे जिससे देखने वाले हैरान रह जाते है। वो सड़क उतर कर पैदल ही घर की और चल देते है।

और भला चले भी क्यों न ? बच्चे की मुस्कान कभी घुटनो के दर्द से छोटी हुई है ?!

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